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कहानी : वधस्थल से छलाँग (1)

चित्रा: पंकज दीक्षित

मैं यह ठीक-ठीक तय नहीं कर पा रहा हूँ कि बात कहाँ से शुरू करूँ! कहीं से भी आरम्भ की जा सकती है. उससे मेरी पहली मुलाकात या उसके आरम्भिक जीवन में ऐसा कुछ भी विशिष्ट नहीं है, जिसके बल पर एक अच्छी शुरुआत हो सके. वैसे सूक्ष्मता से देखा जाये तो उसके अभी के जीवन में भी कुछ उत्तेजक या रोमांचक नहीं मिलेगा. पत्राकार बन गए एक कवि में ऐसा भी कुछ विशिष्ट हो सकता है क्या? मुझे नहीं लगता ऐसा. यही कि उसकी सुबह दस बजे होती है? शराब के नशे से बोझिल सिर और टूटती देह लिये वह बिना कुल्ला किये भरपेट पानी पी लेता है...? कि वह गुस्ल में दो घंटे लगाता है. पिये और बिना पिये, दोनों हालात में वह भरपूर नशे में रहता है! मैं उलझन में हूँ कि इन प्रंसगों में क्या विशिष्ट हो सकता है, जिससे मैं अपनी बात शुरू कर सकूँ.

मेरे लिए ज्यादा सहज है कि मैं रामप्रकाश तिवारी से बात शुरू ही न करूँ. बात सम्पादक जी की आवक से शुरू करता हूँ. यही बेहतर होगा. हर दृष्टि से उपयोगी और रोचक भी होगा. तो बात सम्पादक जी की आवक से शुरू होती है.

सम्पादक जी की आवक की खबर से हम सब बेहद उत्साहित थे. इस खबर के पुख्ता होते ही हमारा उत्साह शहर में फैल चुका था. उनके आते ही हम सब उत्साह के झूले पर पेंग मारने लगे. पहले दिन जब वह दफ्तर आये, हम सबका हाल-चाल पूछ और यूनियन के सचिव रमेश वर्मा को साथ लेकर अपने घर चले गए. इस शहर को उनके जन्म-स्थान और आरम्भिक कार्य-क्षेत्रा होने का गौरव प्राप्त था. जिन दिनों वह यहाँ हुआ करते थे, रमेश पत्राकारिता का ककहरा सीख रहा था. सम्पादक जी ने उन दिनों उसे प्रोत्साहित किया था.

एक नया महौल शुरू हो रहा था. यूनियन और सम्पादक की बीच पिछले तीन वर्षों से चली आ रही दुश्मनी के बाद सहयोग और विश्वास की संस्कृति का नया युग शुरू हो गया था. सम्पादक की गाड़ी में बैठते हुए रमेश वर्मा ने हम सबको प्रसन्नता और विश्वास भरी नजरों से देखा था. रमेश जब लौटा, काफी सन्तुष्ट और उत्साहित था. उसके बाद दूसरे दिन की रात तक मुख्य समाचार सम्पादक सूर्यनारायण जी को छोड़ शेष सारे उप-सम्पादकों और संवाददाताओं से एक-एक कर उन्होंने घर पर बातें कीं. सबके लिए अलग-अलग बुलावा आया. इस समय हम नये युग में प्रवेश कर चुके थे.

तीसरे दिन सम्पादक जी के साथ बैठक हुई थी. इस बैठक के लिए प्रवेश के सारे जिला संवाददाताओं को तार देकर बुलवाया गया था. अस्सी हजार प्रसार संख्यावाले सवेरा टाइम्स की सारी शक्ति सवेरा हाउस के चैथे फ्लोर पर एकजुट बैठी थी. संपादक जी के आते ही सबने मेजंे थपथपाकर हर्षनाद किया. एक रामप्रकाश तिवारी था, जो सबसे पिछली कतार में बैठा ऊँघ रहा था. उसकी दिनचर्या भंग हुई थी. दस बजे सोकर उठनेवाला आदमी दस बजे बैठक में उपस्थित था, इससे ही उसके कष्ट का अन्दाजा लगाया जा सकता है. बहरहाल, सम्पादक जी ने हमें सम्बोधित किया.

”मैं यहाँ विशेष मिशन पर आया हूँ. यह अखबार बन्द होने जा रहा था. पिछले सम्पादक की कारगुजारियों के कारण मैनेजमेंट ने लगभग तय कर लिया था कि अखबार बन्द कर दिया जाये... पर अन्तिम कोशिश के रूप में मुझे यहाँ भेजा गया है... मैंने यह जिम्मा आप सबके बल पर लिया है. मैं आपका आदमी हूँ... आपके बीच का आदमी. और फिर यह शहर, मेरा अपना शहर भी है. मैनेजमेंट यूनियन से भयभीत है. यह भय मैंने यहाँ जाने से पहले ही लगभग खत्म कर दिया है. मैंने मैनेजमेंट को यह बता दिया है कि यूनियन की अगली कतार के लोगों सहित अस्सी प्रतिशत लड़के मेरे हैं. मैंनेजमेंट अब चैन में हैं. अब मेरा और आपका काम है कि मैनेजमेंट को चैन से रहने दें. और वह सबकुछ धीरे-धीरे हासिल करें, जो हमें चाहिए.“

हम सब दम साधे सुन रहे थे. सम्पादक जी ने नाटकीय विराम के साथ पूरी सभा को अपनी नजरों से सहलाया. ऊँघता हुआ रामप्रकाश तिवारी थोड़ा सजग हुआ. उसे खाँसी आ गई. उसके खाँसने तक सब कुछ रुका रहा. उसकी खाँसी थमते ही सम्पादक जी ने बोलना शुरू किया, ”मैं यहाँ राजनीति करने नहीं आया हूँ, और ना ही यह चाहूँगा कि इस दफ्तर में किसी तरह की राजनीति हो. यहाँ होनेवाली राजनीति से मैं परिचित हूँ. आपके बीच बैठे उन लोगों को मैं अच्छी तरह जानता हूँ, जो पत्राकारिता नहीं, सिर्फ राजनीति करते हैं. राजनीति के बल पर सम्पादकों की गोद में बैठकर चुम्मा-चाटी करनेवाले पत्राकारों को मैं आगाह करना चाहता हूँ,  कि वे लोग इस अखबार से इस्तीफा देकर कहीं और चले जाएँ या अपना रंग-ढंग बदलें. मैं ऐसी ताकतों को किसी भी कीमत पर यहाँ नहीं टिकने दूँगा. मैं यहाँ आया ही इसलिए हूँ कि उन्हें बदल दूँ या उखाड़ दूँ. मैं उन सब लोगों को वाजिब हक दूँगा जो पत्राकारिता के लिए कमिटेड हैं... हाँ तो मैं कह रहा था... यहाँ राजनीति नहीं चलेगी. मैं आप सबसे कई गुना ज्यादा मँजा हुआ और पुराना राजनीतिबाज हूँ. मैंने इस प्रदेश के दो-दो मुख्यमन्त्रिायों के साथ राजनीति की है और उनकी सत्ता को चुनौती दी है. उन दिनों मैं विशेष संवाददाता था, पर अब तो संपादक हूँ... यहाँ कुछ गुंडे भी हैं, जिन्होंने पिछले संपादक के साथ मिलकर आतंक मचाया था. मैं उन गुंडों को भी होशियार करना चाहता हूँ कि वे चूहों की तरह बिल में घुस जाएँ. उनके दिन अब लद गए. उनसे ज्यादा ताकतवार आदमी अब इस अखबार का सम्पादक है. मैं राजेन्द्र नगर की सड़कों पर रामपुरिया चाकू लेकर भी घूमता रहा हूँ. मैं चाहूँ तो अभी, इसी समय उन गुंडों की बाँहें उखाड़कर सवेरा हाउस के नीचे फेंक दूँ. पर फिलहाल उन्हें एक मौका देना चाहता हूँ...“

सभा मौन थी. स्तब्ध. पिछले सम्पादक के प्रियजनों के चेहरे हल्दी पिसे सिल की तरह पियराने लगे. सम्पादक जी ने फिर एक नाटकीय विराम के साथ सिकुड़कर छोटी हुई आँखों से पूरी सभा को बेध डाला. लगभग सारे लोग हाँफ रहे थे. मरने-मरने को हो रहे थे. उनके प्राण हुकहुका रहे थे. सिर्फ एक रामप्रकाश तिवारी था, जो जीवित था. उसकी ऊँघ खत्म हो चुकी थी. वह पूरी तरह सतर्क था. तनकर बैठा हुआ रामप्रकाश तिवारी सम्पादक जी को एकटक घूर रहा था.

सम्पादक जी ने सभा समाप्ति की घोषणा की और अपने कक्ष में चले गए. लोगों के प्राण लौटने शुरू हुए. मुख्य समाचार सम्पादक सूर्यनारायण जी का कहना था कि सवेरा टाइम्स के लिए अपनी पत्राकारिता का दौर अब शुरू हो रहा है. बाहर की साख भीतरी संघर्ष के कारण नहीं बन पा रही थी. अब बनेगी साख. प्राण लौटते ही सूर्यनारायण जी उत्साहित हो गए थे. बिना यह गौर किये कि लोग उन्हें सुन रहे हैं या नहीं, वह बोलते ही जा रहे थे, ”पहली बार किसी सम्पादक ने इतना जोरदार भाषण दिया... पहली बार अखबार को दमदार सम्पादक मिला है. अब काम करने में मजा आएगा. पिछले दिनों सम्पादक तो लल्लू-जगधर थे. आये और गए.“

शेष लोग अभी स्वस्थ नहीं हुए थे. हो रहे थे. मैं भी स्वस्थ होने के लिए संघर्ष कर रहा था कि रामप्रकाश तिवारी ने अपने दानों हाथों से मेरे कन्धे को स्पर्श किया. गलबहियाँ डालते हुए बोला, ”चलो डार्लिंग, नींबूवाली चाय पीते हैं.“
मैं पिछले तीन-चार वर्षों से उन तीनों को इस शहर के भीतर मँडराते हुए देख रहा हूँ. अकसर तीनों एक साथ होती हैं. चाहे कोई भी मौसम हो, तीनों पंख फैलाये उड़ती फिरती हैं. शहर का कोई भी कोना उनसे अछूता नहीं. दिन पर दिन शहर बड़ा होता जा रहा है. फिर भी, सुबह से साँझ तक वे कहीं-न-कहीं दिख ही जाती हैं. उन्हें देखते ही रामप्रकाश तिवारी की आँखें चमक उठती हैं. वह बछड़े की तरह हुमकने लगता है. उसका ऐसा मानना है कि उन तीनों से उसे जीवन की ऊर्जा मिलती है. आप इसे रामप्रकाश तिवारी का पागलपन समझ सकते हैं... पर मैंने स्वयं अनुभव किया है कि उसके लिए यह सच है. अकसर वह हमारा साथ छोड़कर उन तीनों के पीछे घंटों घूमता है. कभी-कभी जब वह बेहद उदास और थका-टूटा होता है, उन तीनों की खोज में निकल पड़ता है. जब तीन के बदले वे दो होती हैं, रामप्रकाश तिवारी का मन चिन्ता से भर उठता है कि तीसरी का क्या हुआ? मैंने ऐसी स्थिति में उसे बुदबुदाते हुए सुना है कि कहीं वह बीमार तो नहीं पड़ गई. शहर के असामान्य मौसम की भेंट चढ़ गई या किसी शरारती ने उसके पंख नोंच लिये. वह उन्हें तितलियाँ कहता है.
हम दोनों साथ निकले थे. मैं क्राइम रिपोर्टर हूँ. कोतवाली के अलावा रोज पाँच-सात थानों की सैर करता हूँ. मुझे गांधी मैदान थाना जाना था. और रामप्रकाश तिवारी गांधी मैदान में उन तीनों का मजमा ढूँढ़ने निकला था. वह सांस्कृतिक सम्वाददाता है और एक साप्ताहिक काॅलम ‘शहरनामा’ भी लिखा करता है. उन तीनों पर वह अपने काॅलम में अकसर लिखा करता है. वे तीनों शहरनामा के प्रमुख पात्रों में हैं.

गांधी मैदान की वलयनुमा भीतरी राह के किनारे खड़े एक वृक्ष की घनी छाँह में मजमा लगाये तीनों दिखी थीं. उनके हाथों में पत्थर के छोटे-छोटे चपटे टुकड़े थे, जिन्हें अपनी अँगुलियों में कलात्मक ढंग से फँसाकर ताल देती हुई तीनों गा रही थीं. भीड़ जुटी थी. कुछ बैठे, कुछ खड़े लोगों की भीड़. पुष्पदलों के बीच पुंकेसर-सी तीनों झूम रही थीं. उनकी आवाज लहरा रही थी. ”मोर चढ़ल वा जवनिया गवना से जा राजा जी.“

रामप्रकाश तिवारी मन्त्रामुग्ध उन्हें सुन रहा था. वे बीच-बीच में चुहल रही थीं. लोग उन्हें छेेड़ रहे थे. वे तीनों छेड़ती आवाजों,, भद्दे संकेतों और वहशी नजरों को मुँह चिढ़ाती हुई गूँज रही थीं. मैं उस मजमे से बाहर निकलना चाहता था. पर तिवारी के कारण मेरा निकल पाना मुश्किल था. अगर निकल जाता, तो कई दिनों तक तिवारी मुझसे गुमसुम रहता. हालाँकि, वह उन तीनों को सुनते हुए मुझसे बेखबर था.

उन तीनों ने अपनी आवाज को समेटा. कुछ लोगों ने जेब टटोलने का बहाना किया और खिसक लिये. कुछ लोगों ने पाँच-दस या चवन्नी-अठन्नी का सिक्का फेंका. कुछ ने पैसा देने के बहाने उनकी अँगुलियों को छुआ, आँचल खींचे और कुछ ने चिकोटी काटकर ठहाके लगाये. वे तीनों पैसे सहेजकर भीड़ के बीच राह बनाती हुई एक्जीविशन रोड की ओर निकलीं. और सिनेमा हाॅल के अहाते के पास जाकर लोप हो गयीं.

लोग उन तीनों के जीवन, यौवन और चरित्रा पर टिप्पणियाँ करते हुए चले गए. मजमा बिखरने के बाद रामप्रकाश तिवारी बेंच पर धप्प-से बैठ गया.
”क्यों, चलना नहीं है क्या?“ मैं खीझ रहा था.

”देखा तुमने? तीनों का साहस देखा? वामन अवतार की तरह तीन डेग में पूरी पृथ्वी नापकर चली गईं तीनों.“ वह स्वप्निल स्वर में बोल रहा था.
उसका कन्धा पकड़कर झकझोरते हुए मैंने कहा, ”तू चलेगा या मैं जाऊँ? देर हुई तो थाना इंचार्ज निकल जाएगा और मैं पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाता फिरूँगा.“

मेरी फटकार से वह बेमन उठा और मेरे साथ हो गया.
एक जवान लड़की ने प्रेम में असफल होने पर आत्महत्या कर ली थी. बस यही एक खबर लेकर हम दोनों थाने से वापस लौट रहे थे. लड़की का प्रेमी उसकी सहेली के साथ भाग गया था. लड़की यह सदमा नहीं झेल सकी. वह जहर खाकर अस्पताल पहुँचते-पहुँचते असफल प्रेमिकाओं के इतिहास में दर्ज हो गई. वापस लौटते हुए रामप्रकाश तिवारी ने टिप्पणी की, ”दुनिया से सारी अच्छी चीजें तेजी से नष्ट हो रही हंै.“

मैंने पूछा, ”जैसे?“
उसका संक्षिप्त उत्तर था, ”जैसे प्रमिकाएँ.“

हम चुपचाप पैदल चलते हुए अखबार के दफ्तर पहुँचे थे. मैं डाक संस्करण के लिए खबर बनाकर सूर्यनारायण जी को सौंपने के बाद ताजा खबरों के लिए बाहर निकल गया. रामप्रकाश तिवारी अपना काॅलम लिखने में जुटा हुआ था.
सम्पादक जी विशेष बैठक को सम्बोधित करनेवाले थे. पहली बैठक के लगभग डेढ़ माह बाद यह दूसरी बैठक हो रही थी. इस बीच जो महत्वपूर्ण घटनाएँ घटीं, उनकी संक्षिप्त सूचना बिना किसी ताम-झाम के आपको देना चाहता हूँ. सम्पादक जी ने यूनियन सचिव शर्मा को अपना दाहिना हाथ घोषित किया था. अपने ऊपर सम्पादक जी का विश्वास और स्नेह उसके गले में मछली के काँटे की तरह फँसा था. पूर्व सम्पादक द्वारा की गई प्रोन्नतियों की पुनर्समीक्षा तक वेतन में हुई बढ़ोतरी के भुगतान पर रोक लगा दी गई थी. मुख्य संवाददाता नगरपालिका के बाबुओं की तरह दफ्तर आते, पान चबाते और सारे दिन ऊँघते रहने के बाद चले जाते. सम्पादक जी के अनुसार उन्हें फ्रीज कर दिया गया था. कुछ जिला संवाददाताओं के तबादले हुए. कुछ लोगों को प्रदेश-बदर करने के लिए मैनेजमेंट को रिपोर्ट भेज दी गई थी. सवेरा हाउस के चैथे फ्लोर पर ठहाकों, चुहलों, विचार-विमर्श, गर्म बहसों और खबरों  को लूटने-लुटाने का दौर ठिठका हुआ था. लोग फुसफुसाहटों से काम चला रहे थे. सम्पादक जी को शोर से नफरत थी. वह अपने मातहतों को मौन देखना चाहते थे. डेढ़ माह में किसी के सामने, किसी दूसरे से उन्होंने कोई बात नहीं की थी. हर किसी से वह अकेले में बातें करते थे.

अपना भाषण शुरू करने से पहले सम्पादक जी ने रामप्रकाश तिवारी से कहा, ”आप आगे आ जाएँ.“

पिछली कतार में बैठे तिवारी के लिए अगली कतार में बैठे सूर्यनारायण जी ने जगह खाली कर दी. वह चुपचाप आकर बैठ गया. आज मजमावाली लड़कियों पर उसकी रिपोर्ट उसके काॅलम ‘शहरनामा’ में छपी थी. कल गांधी मैदान में उसकी तन्मयता देखकर ही मुझे लगने लगा था कि पट्ठा कोई जबर्दस्त पीस लिख रहा है. मेरा यह विश्वास कि रामप्रकाश तिवारी की प्रतिभा का लोहा सम्पादक जी को मानना ही पड़ेगाµसही साबित होने जा रहा था.

सम्पादक जी बोल रहे थे, ”मैं यह बात साफ-साफ बता देना चाहता हूँ कि रंडियों के बल पर राजनीति में पद और बीवियों के बल पर नौकरी में प्रमोशन पानेवालों का मैं सख्त विरोधी हूँ. एक पत्राकार पिछले दिनों अपनी बीवी के साथ मेरा हाल-चाल पूछने मेेरे घर गए थे. मैं नाम नहीं बताऊँगा. ऐसे लोगों को मैं हाशिये पर ही रखूँगा. वे बीवियों के बल पर अखबार की मुख्यधारा में नहीं रह सकते.“

सारी सभा को साँप सूँघ गया. सबने एक-दूसरे को कनखियों से देखा. विवाहित पत्राकारों पर संकट के गहरे बादल छा गए. कौन था? कौन गया था अपनी बीवी के साथ? यह सवाल सबको उद्विग्न कर रहा था. सिर्फ रामप्रकाश तिवारी निश्चिन्त था. मुस्कुरा रहा था. मेरी तो दहशत से टाँगें थरथराने लगी थीं. सबने मन ही मन अपनी समझ के अनुसार कोई एक नाम रेखांकित किया कि हो सकता है कि यही अपनी बीवी के साथ गया हो. सन्देह के घने बादल छा चुके थे.

सम्पादक जी ने भाषण जारी रखते हुए कहा, ”मेरे अखबार में कुछ कवि-साहित्यकार वगैरह घुस आये हैं. मेरा ऐसा मानना है कि ऐसे लोग पत्राकारिता की दुनिया के लिए कोढ़ होते हैं. समाज के सच में इनकी कोई जगह नहीं, मुझे साहित्यकारों और कुत्तों से नफरत है. मैं इनसे अपने अखबार को बचाना चाहता हूँ. किसी भी कीमत पर मैं इन्हें अपने अखबार के दफ्तर में नहीं देखना चाहता... जो लोग अपने कवि-लेखक होने के गरूर में इतराये फिरते हैं, वे अपना चाल-चलन बदल दें, वर्ना उन्हें सवेरा हाउस से नीचे फेंक दिया जाएगा.“

अगली कतार में बैठा रामप्रकाश तिवारी बड़ी उत्सुकता से सम्पादक जी को सुन रहा था. उसके चेहरे पर प्रसन्नता के भाव थे. वह नन्हंे शिशु की तरह उत्साहित था जबकि शेष सारे लोग अस्वस्थ होने लगे थे. सूर्यनारायण जी के तो प्राण ही अटके हुए थे. सम्पादक जी ने तनकर बैठे हुए रामप्रकाश तिवारी पर अपनी नजरें टिका दीं और सारी शक्ति केन्द्रित करते हुए गरजे, ”मिस्टर रामप्रकाश तिवारी! आप कविता झाड़ना बन्द करके पत्राकारिता शुरू कर दीजिये, नहीं तो...“

क्रोध के मारे सम्पादक जी के शेष शब्द गुम हो गए. उनके कंठ से गों-गों की आवाज निकली. उनकी आँखें अँधरे में चमकती किसी शातिर लकड़भग्गे की आँखों जैसी चमक रही थीं. रामप्रकाश तिवारी ने अटके हुए आगे के शब्दों को सुनने के लिए अधीर होते हुए पूछा, ”नहीं तो... नहीं तो क्या होगा सम्पादक जी.“

”दो कौड़ी की रंडियों के पीछे रात-दिन घूमते-फिरते हो और मुझसे जुबान लड़ा रहे हो... पत्राकार बने फिरते हो तुम?“ सम्पादक जी अपनी सारी शक्ति संचित करके बोल रहे थे, ”तुम्हारे बारे में एक-एक खबर है मेरे पास. दारू पीकर बाजारू औरतों के पीछे रात भर डोलते हो और साहित्यकार-पत्राकार बनते हो?“

सम्पादक जी हाँफने लगे थे. जैसे-तैसे अपनी साँसों पर काबू पाते हुए उन्होंने अपने सामने रखा आज का अखबार बीच टेबल पर फेंक दिया. आप से तुम के बाद तुम से आप पर उतरते हुए बोले, ”यही रिपोर्ट है?... यही है अखबार की भाषा? इसमें खबर कहाँ है? रंडियों पर लिखने के लिए नहीं है यह अखबार समझे आप... मैं जनता का पत्राकार हूँ. जनता पर लिखिये, जनता पर. रंडियों और जनता के बीच फर्क होता है. कविता नहीं होती है पत्राकारिता... बहुत फर्क होता है कविता के झूठ और पत्राकारिता के सच में... आज से आपका यह शहरनामा काॅलम बन्द... और आप सांस्कृतिक प्रतिनिधि का काम भी नहीं करेंगे. आप क्राइम देखेंगे आज से. सूर्यनारायण जी! सबकी बीट बदल दीजिये आज से. आज से. आइये मेरे चैम्बर में. मैं बिलकुल नये ढंग से अलाटमेंट करना चाहता हूँ.“

सम्पादक जी अपने चैम्बर में चले गए. रामप्रकाश तिवारी ने सूर्यनारायण जी को सहारा देकर उठाया और सम्पादक जी के चैम्बर के दरवाजे तक पहुँचा आया.

रमेश वर्मा सबसे पहले उत्तेजित हुआ था. तत्काल उसकी उत्तेजना ने रंग दिखाया और कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़कर शेष लोग उत्तजित हो गए. मैं तो तत्काल सम्पादक को जूते लगाने के पक्ष में था. कुछ लोग घेराव के लिए तो कुछ लोग नारेबाजी के लिए उतावले थे. कुछ का मत था कि मैनेजमेंट को नोटिस देकर कल से कलमबन्द हड़ताल कर दी जाये. सिर्फ रामप्रकाश तिवारी की राय बिलकुल विपरीत थी. वह कुछ भी करने के पक्ष में नहीं था.

क्राइम रिपोर्टर रामप्रकाश तिवारी का अपराध की दुनिया में प्रवेश धमाकेदार ढंग से हुआ. जिस दिन उसे क्राइम बीट पर लगाया गया, उसी शाम शहर के व्यस्ततम इलाके के चैक पर एक घटना घटी. अपने पिता के साथ रिक्शे पर बैठकर चैक से गुजरती एक खूबसूरत लड़की को गुंडों ने घेरकर नीचे उतार लिया. लड़की का बाप गिड़गिड़ाता रहा, गुंडे नहीं माने. हिन्दी फिल्मों में दिखाया जानेवाला एक ऐसा दृश्य, जिसे देखकर दर्शक सीटियाँ बजाएँ और सिसकारी भरेंµ गुंडों ने रचा. उन्होंने लड़की की साड़ी बीच चैक में उतार दी. ब्लाउज-पेटीकोट पहने लड़की दोनों हाथों से अपने वक्ष को छुपाती सड़क पर लुढ़क गई. गुंडे मोटरसाइकिल पर उड़ गए. साड़ी लेते गए, जाते-जाते कह गए ”हरामजादे. आज तो छोड़ दिया. अगली बार एक भी कपड़ा नहीं बचेगा... तेरी बेटी को नंगा नचाएँगे इसी चैराहे पर.“
रामप्रकाश तिवारी ने यह सब घटित होते हुए अपनी आँखों से देखा. जुल्मी राजा के घुड़सवारों की तरह गुंडे आए और बूढ़े पिता की जवान बेटी को फसल की तरह रौंदकर चले गए. बाप-बेटी भीड़ से घिरे थे. सब कुछ देखने-सुनने के बाद वह बदहवास सवेरा हाउस पहुँचा. खबर बनाकर सूर्यनारायण जी को सौंपी. सूर्यनारायण जी बोले, ”तिवारी प्रभु! भाग्यशाली हैं आप. पहले ही दिन ऐसी महत्वपूर्ण खबर.“

उसने घूरकर सूर्यनारायण जी को देखा. मेरे पास आया. मैं अपने काम से फुर्सत पाकर उसकी प्रतीक्षा कर रहा था. मैं अपराध की दुनिया से खेलों की दुनिया में भेज दिया गया था. स्कूली बच्चों का क्रिकेट मैच देखकर लौटा था. पिछले कई दिनों का तनाव बच्चों को खेलते हुए देखकर धुल गया था. मैंने तिवारी को छेड़ा, ”वैलकम, क्राइम किंग.“
वह गम्भीर था. कुछ-कुछ उदास और थका हुआ भी. मेरे जुमले पर कोई प्रतिक्रिया दिये बिना उसने कहा, ”चलो, चाय पीते हैं.“

हम दोनों चाय पीकर यूँ ही बेमतलब सड़कों पर टहलते रहे. घटना के बारे में संक्षिप्त सूचना देकर वह चुप लगा गया. मैं उसकी मनःस्थिति समझ रहा था. लड़की के साथ जो घटित हुआ, ऐसी एक भी घटना रामप्रकाश तिवारी का पूरा जीवन नष्ट करने के लिए काफी है. मैं चिन्तित था. अपराध की निर्मम दुनिया की भयावह खबरें लिखते-लिखते तिवारी जीवित बच पाएगा या नहीं. यही थी मेरी चिन्ता.

”गांधी मैदान चलते हैं. दूब पर लेटेंगे थोड़ी देर.“ मैंने तिवारी को सुकून देने की गरज से प्रस्ताव रखा.
”नहीं. बस-स्टैंड चलते हैं. वहीं होंगी तीनों. इस समय वहीं मिलती हैं.“ तिवारी आकुल हो उठा.

हम बस स्टैंडवाली राह की ओर मुड़ चले थे. वह बुदबुदायाµ”पता नहीं, तीनों होंगी भी या नहीं. कोई भरोसा नहीं. कब,...कौन,...कहाँ गुम हो जाये,... कोई भरोसा नहीं.“

तीनों बस स्टैंड के भीतर दिख गयीं. यात्रियों की भीड़ को अपनी वेगमय उपस्थिति से चीरती हुई घूम रही थीं. दारू के नशे में डगमगाती, पान की गिलौरियाँ चबातीं, खलासियों-ड्राइवरों और रंगदारों के व्यूह में निर्भय होकर विचर रही थीं. अभिसार के लिए जाती रीतिकालीन नायिकाओं की तरह वे लाज से सहमी, सिकुड़ी नहीं थी. वे दमक रही थीं. मृदंग की  तरह बज रहा थीं. तितलियों के पीछे भागते बच्चों की तरह रामप्रकाश तिवारी उनके पीछे-पीछे भाग रहा था. वह उल्लसित था, जिज्ञासु था. वह उन तितलियों को छूना चाहता था. उनके रंग-बिरंगे पंखों के जादू का रहस्य पाना चाहता था... पर एक बस से उतरे हुए मुसाफिरों की भीड़ के रेले ने हमें रोक दिया और वे तीनों गुम हो गईं.
मैं जब दूसरे दिन अखबार के दफ्तर पहुँचा, रामप्रकाश तिवारी पहले से मौजूद था. मुझे सन्देह हो गया था कि वह पहुँच चुका होगा. इसी सन्देह के चलते मैं प्रेस कान्फ्रेंस के बीच से उठकर भागते हुए पहुँचा था. सम्पादक जी अभी नहीं आये थे. उनके चैम्बर के दरवाजे पर नजरें टिकाये तिवारी चुप बैठा था. सम्भवतः प्रतीक्षा कर रहा था. सूर्यनारायण जी ने इशारे से मुझे बुलाया और फुसफसाये, ”तिवारी एकदम गुम्मी मारे बैठा है. बात क्या है. खतरनाक मूड में लग रहा है.“
”मुझे नहीं मालूम.“ मैंने बात टालने की कोशिश की थी.
”पर बात कुछ है जरूर.“
”रात को ज्यादा पी गया होगा... भकुआया है.“ मैं बात टालते हुए रमेश वर्मा के पास जाकर बैठ गया.
 
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